MATRITVA SHAKTI मातृत्व शक्ति A RELIGIOUS STORY




 मां शब्द  ही  इतना  महान है कि भगवान  भी मां को  अपने  से  श्रेष्ठ  मानते  है  ।अपना  रामायण ही ले लिजीए मां के ही  आशीर्वाद से  राम चौदह  वर्ष  का  वनवास पूरा   किये। भगवान कृष्ण ने  भी  मां यशोदा को  कितना  मान देकर  उन्हें  अपने  से  श्रेष्ठ  बताया।  मां और  उसके  मातृत्व  शक्ति  का एक  उदाहरण प्रस्तुत  करती ,यह कहानी विश्व प्रसिद्ध  है।                                                  पूर्व काल मे  राजा  दुश्यन्त  शिकार खेलने वन को  गये  हुए  थे। शिकार  खेलते खेलते। वे बहुत थक गए थे।   उन्होने एक  आशा  भरी  दृष्टि  इधर उधर डाली,  पर  कही भी उन्हें थोड़ा  विश्राम करने  लायक जगह दिखाई  नही  दी।  थोड़ी  दूर चलने  के बाद उन्हे एक ऋषी  आश्रम  दिखाई दिया, उन्होने   सोचा कि  चल कर थोड़ा विश्राम कर  लिया जाय। वह ऋषि  कण्व  का  आश्रम  था ।उस दिन ऋषि  कण्व किसी  कार्य वश  बाहर  गये  हुए  थे  ।                                  आश्रम  मे उनकी  मानस पुत्री  शकुंतला  वहां  विराज मान थी। जब  राजा ने  उनसे  थोड़ा  विश्राम करने की  इच्छा  जाहिर की तो  शकुंतला मना ना कर  सकी। और उन्होने  आतिथ्य के आदर सत्कार  मे  कोई  कमी नही आने  दिया।  राजा  दुश्यन्त शकुंतला के  आदर  सत्कार  से  बहुत प्रभावित हुए  ,पर उनकी   अपार  सौन्दर्यता   को  देख कर   राजा  मोहित  हुए बीना  ना रह सके औऱ  वे  शकुंतला के प्रेम जाल मे फसने के लिए  विवश  हो गए  ।उस  काम रुपणी  की  मादकता  भरी कंचन  काया को  देख कर वे अपना  सुध बुध  खो  बैठे  ।                                              उन्होने  प्रेम मोह मे विवश  होकर शकुंतला के  समक्ष विवाह का  प्रस्ताव  रखा  ।पहले तो शकुंतला  ने यह कह कर टाल दिया कि  मै अपने  पिता ऋषि कण्व के आज्ञा के बीना  कुछ नही कर सकती,पर हकीकत  तो यह थी, मन ही  मन वह भी  राजा दुश्यन्त  से  बहुत आकर्षित  हो चुकी  थी। मन मे कई तरह की  तरंगे  उठ  रही थी।  रह रह कर दिल की धडकने  तेज  हो जाती थी। इस तरह से दिल से मजबूर  होकर  शकुंतला  भी  विवाह  के लिए  राजी  हो गयी और फिर  उन्होने  गन्धर्व  विवाह  कर  लिया।  और आत्मिक  शान्ति का  अनुभव करके  आत्मिक  व्यवहार  कर  लिया।                                                    दुसरा दिन बीत गया ,जब ऋषि कण्व का आश्रम में आगमन  नही हुआ । तो  राजा  दुश्यन्त ने  शकुंतला को अपनी  सबसे  प्रिय  अंगुठी   भेट  करके  कहा कि "  मै  शीध्र ही  बड़ी  धुम धाम से ले जाकर  अपनी  रानी  बनाउंगा। और ऐसा आश्वासन देकर  वहां से  प्रस्थान  कर गये।  कुछ दिन बाद  जब कण्व ऋषि का  आगमन हुआ  ,तो  पुरी   बात  जानने के  बाद उन्हे  बडी़ खुशी  का अनुभव   हुआ  । शकुंतला  के इस फैसले  से  वे  कतई नाराज  नही थे।                                                                                             कुछ  दिनो  बाद जब  राजा  दुश्यन्त  का कोई  संदेश  न पाकर  शकुंतला  दुखी  रहने लगी। क्योंकि  उनके  प्यार का  एहसास  उसे होने  लगा  था। उसके  गर्भ  मे  राजा  दुश्यन्त  की  संतान  पल  रही थी।  शकुंतला  पुरा दिन राजा  दुश्यन्त के ही  विचारो  मे खोई  रहती।  एक दिन  अचानक  दुर्वाशा ऋषि  का  आगमन  हुआ। शकुंतला  राजा दुश्यन्त के  विचारो  मे  इतनी खोई  हुई  थी ,कि  ऋषि के  आगमन का उसे  आभास  ही नही हुआ । ऋषि दुर्वाशा   तो क्रोध के  मामले  मे जग प्रसिद्ध  है,शकुंतला के इस व्यवहार  से  वे अत्यंत क्रोधित  हुए वे  त्रिकालदर्शी थे। अपने ध्यान  से  उन्होने  जान लिया कि  माजरा  क्या है। ?  उन्होने अपने अपमान  करने के बदले  शकुंतला  को  यह श्राप  दे  दिया  कि  "जाओ जिसके  ख्यालो  मे  खोकर  तुमने  हमारा  अपमान किया  है  वह तुम्हें सदा के लिए  भूल जायेगा  ।"    ऐसा कह कर  ऋषि  वहां  से प्रस्थान करने की  तैयारी करने  लगे।                                                                                                                                                               श्राप के प्रभाव से  जब  शकुंतला की  तन्द्रा टूटी, तो  उसने  ऋषि दुर्वाशा के  पैर  पकड़ लिए और कहा"ऋषिवर  आप मुझ  अभागिन  को  इतना  बड़ा  दण्ड  मत दिजिए, मै  मजबूरी की  मारी  अभागन  आपके आने का एहसास ना  कर सकी ।जिस  तरह मै ऋषि कण्व की  पुत्री  हूं, उसी  तरह  आपकी  भी पुत्री  हुं। मेरा अपराध  तो  क्षमा योग्य  नही  है, पर मै आपसे  दया कि भीख  मांग रही  हूं ।कृपया  मुझे  क्षमा  दान दे दिजिए।   इतना  करूणा भरी आग्रह सुन कर ऋषि दुर्वाशा का हृदय द्रवित  हो गया  और उन्होने शकुंतला  से कहा  " पुत्री  मेरा दिया हुआ  श्राप  तो  अटल  है, पर मै  उसकी  अटलता को कम कर सकता हूं, कोई  ऐसी वस्तु जिसे  देख कर तुम्हारा ख्याल  आये। तो  बात कुछ  बन सकती है। तुम्हारी  पीड़ा  कुछ  कम  हो सकती है "                                                                                       कुछ  दिन  बाद  ऋषि कण्व  को  अपनी  पुत्री शकुंतला की  चिंता  सताने  लगी। उसे  चिंतित  देखकर  उन्हे  बड़ा  कष्ट  होता  । आखिर कार  उन्होने  एक  फैसला  लिया कि  राजा  दुश्यन्त  राज काज  मे  बहुत  व्यस्त  रहते  होगे  इसलिए  उनको  यहां  आने  का  समय नही मिल पाता होगा।  स्वंय चल कर  इस  समस्या  का  हल निकालना  चाहिए। और वे  शकुंतला को  लेकर  उनके  यहां  चल  दिए।  चलते चलते   बीच  रास्ते मे  एक नदी  मिली  ।जब  नाव  मझधार  मे  पहुंची  तो  दुर्वाशा ऋषि के  श्राप से  ग्रसित  शकुंतला को  दी हुई  वह  अत्यंत  प्रिय  अंगूठी  नदी के जल  मे  गीर गई  ।                                     दोनो जब  राजा  दुश्यन्त  के  दरबार  मे  पहुंचे  तो  ऋषि  कण्व  ने  अपने  आने का  कारण  राजा  के  समक्ष  रखा।  पर ऋषि  दुर्वाशा  के  श्राप  के  प्रभाव  से  प्रभावित  राजा  दुश्यन्त  ने  देवी शकुंतला  को  पहचानने  से  इन्कार  कर दिया।  ऋषि  कण्व  अपना  अपमान  ना सह सके  और  उन्होने  राजा  दुश्यन्त को  श्राप  देना  चाहा  पर,देवी शकुंतला  ने उन्हें ऐसा  करने  से  रोक  दिया और  दोनो  चुप चाप अपना  अपमान  सहकर भी  वापस  आ  गये।                                                             कुछ दिन  बीतने के  बाद  देवी  शकुंतला  ने एक  सुन्दर  बच्चे  को  जन्म  दिया  ।  आंखे  क ई  बार  भींग  ग ई  खुशी  मनाए  या  गम ,  रह रह कर  राजा  दुश्यन्त के   शब्द  दिमाग  मे  गुजने  लगते।  केवल  सोच  मात्र  से देवी  शकुंतला  कांप  उठती, पर  अगले  ही  पल  पुनः  अपने  ह्रदय  पर  पत्थर  रख  कर , सब कुछ  थोड़ी  देर के लिए  भूल जाती ।पुनः जब  बालक  का  मुख  देखती  तो  यह  सोच  कर  सब्र  कर लेती कि  चलो  अब इसके  लालन  पालन  के लिए  मुझे  जीना  है।  अब  यही  मेरी  जिन्दगी  का  मूल  उद्देश्य  है।                                वर्षो बाद   राजा  दुश्यन्त  के  राज्य  मे  एक  घटना  घटी। एक  मछवारे ने  मछली के  पेट  से  एक  अंगूठी  मिलने और  राजा  दुश्यन्त  का  राज  चिन्ह  देखने  पर ,बहुत  आश्चर्य चकित  हुआ  और  भयभीत  होकर  राजा  दुश्यन्त  के  दरबार  पहुँच कर ,उसने  राजा  के  समक्ष  वह  अंगूठी   पेश कर  सारी  दास्तान  सुनाने  लगा। अंगुठी  देखते  ही  राजा  दुश्यन्त  को  पुरानी  सारी बाते  याद  आने  लगी  ।उन्हे  अपनी  भूल  का एहसास  हुआ।   उन्होने  अपने  आप  को  कोसना  शुरू  किया। उस  वक्त  उन्हें  ऋषि कण्व  का  वे आग्रह  भरे  शब्द  उनके  मस्तिष्क  मे  गुजने  लगे। उन्होने  अपने  आप  को  एक  घोर  अपराधी  महसूस  किया।  देवी  शकुंतला  के  बारे  मे  ख्याल  आते ही  वे  अधीर  सा  हो गये  ।  मै  कैसे  इस  अपराध  का प्रायश्चित  कर  पाऊंगा  ?   अबिल्मब उन्होने  ऋषि कण्व के  आश्रम  जाने  की  घोषणा  की ,और अपने  सहायको  के साथ  वहाँ  से  प्रस्थान कर गए।                                                               जब  वे  ऋषि कण्व के आश्रम  पहुँचे ,तो  वहां एक  सुन्दर  बालक  को  शेरो के  साथ  सहजता  से  खेलते  हुए  देख कर  उन्हे बड़ा  आश्चर्य  हुआ  । वह बालक   खेलते खेलते  शेर के जबड़े को  पकड़  कर जोर  से  पटक   देता और  शेर कुछ  भी प्रतिक्रिया  नही  देता।  तभी  उन्हें  ऋषि  कण्व  की  आवाज  उनके  कानों  मे  पड़ी। " राजन  यह  बालक उसी देवी का  पुत्र है जिसे आपने  भरी  सभा  मे  लज्जित किया  था  । इसका  नाम  कुमार  भरत  है ।"   ऋषि  कण्व  को  देखकर  राजा  ने  उनका  चरण  पकड़  लिया  और अपने उस अपराध के लिए  क्षमा  मांगने  लगे वे बोले " ऋषिवर  मै आप का  अपराधी  हूं  । मेरा अपराध  क्षमा के  योग्य  नही  है,  इस  लिए  मुझे  किसी प्रकार  का दण्ड  दिजीए।    ऋषि  कण्व  ने   कहा  राजन  उठिए  आप  मेरे  अपराधी  नही है ,आप  मेरी  पुत्री के  अपराधी  है । मै उस पर  गर्व  करता  हूं  ।बीना  किसी के  सहायता के उसने इतने  बडे़ कष्ट  को  सरल  बना दिया  ।मै  उसके मातृत्व शक्ति को  प्रणाम करता  हूं  ऐसी  विषम  परिस्थिति  मे  भी  उसने  बहुत  सुझ  बुझ  से  काम  लिया।  उसने अपना  दर्द का एहसास  किसी  को  नही  होने  दिया ।                                                                                      कुछ दिन   राजा  दुश्यन्त  उनके  यहाँ  आतिथ्य  ग्रहण करके  अपनी धर्म पत्नी  देवी  शकुंतला और  पुत्र  कुमार  भरत  को  लेकर अपनी  राजधानी की  तरफ  चल  दिए  । ये  वीर  बालक  आगे  चलकर  बहुत बडा प्रतापी  राजा  भरत  बना। जिसके  नाम पर  देश का  नाम भारत वर्ष   पड़ा।                                                                         दोस्तों  यह  सत्य कथा  आपको  अच्छी  लगी  हो  तो  कमेंट  बाक्स  दो  शब्द  लिखिए और  अपने  दोस्तों को शेयर किजिए। धन्यवाद  लेखक -भरत गोस्वामी 




                           








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