NISHKAM BHKTI निष्काम भक्ति A RILIGIOUS STORY
भगवान श्री हरि विष्णु की लीलाएं जो लोक कथाओं में चर्चित है। भगवान श्री हरि विष्णु उदारता की बेमिसाल प्रतिमुर्ति है ।दया के सागर भक्त वत्सल भगवान श्री हरि विष्णु की कृति का एक व्याख्यान को इस कथा द्वारा वर्णित किया गया है ।
बहुत समय पहले एक राजा हुए जो भगवान श्री हरि विष्णु के परम भक्त थे ।दीन दुखियों की सेवा करना ,प्रजा की हर छोटी-बड़ी समस्या को समझना और समझाना उनकी दिन चर्या थी । उन्होंनेे प्यार से भगवान श्री हरि विष्णु का एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था ।पर उन्होंने उसे सार्वजनिक घोषित कर दिया था । स्वंय भी वह वहीं जाकर पुजा अर्चना किया करते थे । ऐसा करते करते बहुत समय बीत गया एक दिन उनके यहां उनके गुरुदेव का आगमन हुआ कुछ दिन रहकर गुरू देव का जब अपने आश्रम जाने की तैयारी होने लगी तो उनके गुरु देव बहुत प्रसन्न थे राजा के सद कार्य से मंत्र मुग्ध हो कर उन्होंने राजा को ढेर सारा आशीर्वाद दिया और उनसे कहा कि जिस मार्ग को आपने चुना है वह मार्ग सीधा भगवान श्री हरि विष्णु के परम धाम वैकुंठ में जाता है । शीघ्र ही एक दिन ऐसा आएगा कि आप को भगवान श्री हरि विष्णु के अति प्रिय रूप के दर्शन होंगे क्योकि परम दयालु करूणा के सागर भगवान श्री हरि विष्णु आप जैसे भक्तों पर बहुत खुश रहते हैं । राजा का आथित्य ग्रहण करने के कुछ दिन बाद गुरू देव एक दिन अपने आश्रम चले गए । और राजा नित्य प्रति की भांति भगवान श्री हरि विष्णु की पुजा अर्चना करते रहे । एक दिन उन्होंने अत्यंत प्रेम भाव से आत्म विभोर होकर भगवान श्री हरि विष्णु की मूर्ति को स्वर्ण आभूषणों से सुसज्जित करवा कर विधि विधान से पूजा अर्चना कर ही रहे थे कि एक निर्धन ब्राह्मण आकर भगवान श्री हरि विष्णु की मूर्ति को तुलसी दल से ढक दिया । राजा को यह सब देखकर बहुत बुरा लगा । लेकिन वह संकोच वश कुछ बोल नहीं पाये । उन्होंने स्वयं ही ऐसी घोषणा की थी कि इस मंदिर पर जितना अधिकार मेरा होगा ठीक उतना ही अधिकार एक आम नगर निवासी को होगा । जीद्द वश राजा ने दूसरे दिन उससे दुगने स्वर्ण आभूषणों से सुसज्जित करवा करके पुनः विधिवत पूजा अर्चना शुरू किया फिर वह निर्धन ब्राह्मण आकर भगवान श्री हरि विष्णु के मुर्ति को तुलसी दल से ढक दिया । यह प्रक्रिया आठ दिनों तक चलती रही ।नवे दिन राजा का धैर्य जवाब दे गया और उन्होंने उस निर्धन ब्राह्मण को बहुत खरी खोटी सुनाई । पर ब्राह्मण राजा को बिना कुछ कहे ही वहां से निकल पड़ा । और अपने कुटिया में ही भगवान श्री हरि विष्णु की मिट्टी की मूर्ति बना कर विधिवत पूजा अर्चना कर ने लगा । कुछ दिनों बाद ब्राह्मण के यहां एक अजीब सी घटना घटने लगी । सन्ध्या समय जब वह पुजा अर्चना के लिए तैयारी में जुट जाता तो प्रसाद ही गायब हो जाता । निर्धन ब्राह्मण परेशान सा हो जाता ।ऐसी ही प्रक्रिया सात दिनों तक नियमित रूप से होती रही । एक दिन उस निर्धन ब्राह्मण ने सोचा कि एक दिन छूप कर देखा जाय माजरा क्या है । कुछ देर बाद उसने देखा कि एक दुबला पतला आदमी आकर इधर उधर देखने के बाद प्रसाद उठा कर चलते बना ।पीछे से उस निर्धन ब्राह्मण ने आवाज लगाई । "ठहर आज मैं तुम्हें रोज प्रसाद चुरा कर खाने का मजा चखाता हूं।"इस तरह आवाज सुनकर वह आदमी घबराकर ऐसा भागा की वेहोश होकर गीर पडा । उसकी दशा को देखकर उस निर्धन ब्राह्मण का गुस्सा शांत हो गया और करूणा जाग गया । उसने उस आदमी का सिर अपने गोद में लेकर मुंह पर पानी के छीटें मारने लगा । वह मन ही मन पछताने लगा कि मैंने नाहक में इस पर चिल्लायां । बेचारा घबराकर वेहोश हो गया ।उसके चिल्लाने से आस पास के पड़ोसी भी इकट्ठा हो गए थे । थोड़ी देर बाद वह देखता है कि उसके गोद में वेहोश आदमी कोई और नहीं बल्कि भगवान श्री हरि विष्णु ही है जो वेहोशी का बहाना बना कर आंखें बंद करके मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं । सहस्त्रों सुर्य के समान तेज कृति वाले, मेघों के समान श्याम वर्ण वाले ,कमल के पंखुड़ियों के समान सुन्दर नेत्रों वाले परम उदार भगवान श्री हरि विष्णु स्वंय एक निर्धन ब्राह्मण की गोद में आराम से लेटे हुए हैं ।उस समय का यह मनोहारी दृश्य सभी देव देवता देख कर हर्षित हो रहे हैं । भक्त और भगवान का यह सुंदर मिलन कभी कभी देखने को मिलता है । फिर थोड़ी देर बाद भगवान श्री हरि विष्णु के दूत उस ब्राम्हण को विशेष रथ में बैठा कर भगवान के परम धाम वैकुंठ की ओर चल देते हैं ।नगर निवासियों द्वारा जब राजा को यह सब समाचार मिलता है तो उसका मन आत्मग्लानि से भर जाता है । वह अपने गुरु देव को बुला कर सब राज पाट दान देकर आत्म दाह की तैयारी करता है । गुरू देव उसे समझाने की कोशिश करते हैं पर वह कुछ सुनने को तैयार नहीं है ।वह केवल एक ही बात कहता है कि मैंने धन वैभव के द्वारा भगवान की भक्ति पानी चाही पर सब वेकार है केवल निष्काम भक्ति को पाकर एक निर्धन ब्राह्मण जीते जी भगवान के परम धाम वैकुंठ चला गया । और मुझे वैकुंठ तो दुर भगवान के दर्शन भी नसीब नहीं हुए ।मै यह देह का त्याग कर दूं गा । यही मेरा प्रायश्चित होगा मैंने एक निर्धन ब्राह्मण को नाहक में खरी खोटी सुनाई ।मै झुठे धन वैभव के द्वारा भगवान की भक्ति पाने का संकल्प लिया था । यह कहकर उसने अग्नि कुंड में छलांग लगा दी। कुछ समय बाद जब उसने आंखें खोली तो देखता है की परम दयालु भगवान श्री हरि विष्णु के शरीर से सैकड़ो तेज पुंज निकल रहे हैं ।और भगवान श्री हरि विष्णु उसकी ओर देखकर मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं ।वह मन ही मन सोचता है कि गुरू देव की बात आज सत्य हुई । मुझे मेरे प्रभु के दर्शन हुए । तब भगवान श्री हरि विष्णु के मुखारविंद से उसे यह शब्द सुनाई दिए " मैं तो स्वयं लक्ष्मी पति हूं । मुझे धन वैभव से क्या लाभ मैं तो तुम्हारे और उस निर्धन ब्राह्मण के निष्काम भक्ति से खुश हूं । मै प्रेम, श्रद्धा ,और निष्काम भक्ति का आदर करता हूं ।मेरे यहां छोटा या बड़ा कोई मायने नहीं रखता ।" दोस्तों यह कहानी आप को कैसी लगी कमेंट बॉक्स मे दो शब्द जरूर लिखें आपका अपना ही लेखक-भरत गोस्वामी जय श्री हरि ।
बहुत समय पहले एक राजा हुए जो भगवान श्री हरि विष्णु के परम भक्त थे ।दीन दुखियों की सेवा करना ,प्रजा की हर छोटी-बड़ी समस्या को समझना और समझाना उनकी दिन चर्या थी । उन्होंनेे प्यार से भगवान श्री हरि विष्णु का एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था ।पर उन्होंने उसे सार्वजनिक घोषित कर दिया था । स्वंय भी वह वहीं जाकर पुजा अर्चना किया करते थे । ऐसा करते करते बहुत समय बीत गया एक दिन उनके यहां उनके गुरुदेव का आगमन हुआ कुछ दिन रहकर गुरू देव का जब अपने आश्रम जाने की तैयारी होने लगी तो उनके गुरु देव बहुत प्रसन्न थे राजा के सद कार्य से मंत्र मुग्ध हो कर उन्होंने राजा को ढेर सारा आशीर्वाद दिया और उनसे कहा कि जिस मार्ग को आपने चुना है वह मार्ग सीधा भगवान श्री हरि विष्णु के परम धाम वैकुंठ में जाता है । शीघ्र ही एक दिन ऐसा आएगा कि आप को भगवान श्री हरि विष्णु के अति प्रिय रूप के दर्शन होंगे क्योकि परम दयालु करूणा के सागर भगवान श्री हरि विष्णु आप जैसे भक्तों पर बहुत खुश रहते हैं । राजा का आथित्य ग्रहण करने के कुछ दिन बाद गुरू देव एक दिन अपने आश्रम चले गए । और राजा नित्य प्रति की भांति भगवान श्री हरि विष्णु की पुजा अर्चना करते रहे । एक दिन उन्होंने अत्यंत प्रेम भाव से आत्म विभोर होकर भगवान श्री हरि विष्णु की मूर्ति को स्वर्ण आभूषणों से सुसज्जित करवा कर विधि विधान से पूजा अर्चना कर ही रहे थे कि एक निर्धन ब्राह्मण आकर भगवान श्री हरि विष्णु की मूर्ति को तुलसी दल से ढक दिया । राजा को यह सब देखकर बहुत बुरा लगा । लेकिन वह संकोच वश कुछ बोल नहीं पाये । उन्होंने स्वयं ही ऐसी घोषणा की थी कि इस मंदिर पर जितना अधिकार मेरा होगा ठीक उतना ही अधिकार एक आम नगर निवासी को होगा । जीद्द वश राजा ने दूसरे दिन उससे दुगने स्वर्ण आभूषणों से सुसज्जित करवा करके पुनः विधिवत पूजा अर्चना शुरू किया फिर वह निर्धन ब्राह्मण आकर भगवान श्री हरि विष्णु के मुर्ति को तुलसी दल से ढक दिया । यह प्रक्रिया आठ दिनों तक चलती रही ।नवे दिन राजा का धैर्य जवाब दे गया और उन्होंने उस निर्धन ब्राह्मण को बहुत खरी खोटी सुनाई । पर ब्राह्मण राजा को बिना कुछ कहे ही वहां से निकल पड़ा । और अपने कुटिया में ही भगवान श्री हरि विष्णु की मिट्टी की मूर्ति बना कर विधिवत पूजा अर्चना कर ने लगा । कुछ दिनों बाद ब्राह्मण के यहां एक अजीब सी घटना घटने लगी । सन्ध्या समय जब वह पुजा अर्चना के लिए तैयारी में जुट जाता तो प्रसाद ही गायब हो जाता । निर्धन ब्राह्मण परेशान सा हो जाता ।ऐसी ही प्रक्रिया सात दिनों तक नियमित रूप से होती रही । एक दिन उस निर्धन ब्राह्मण ने सोचा कि एक दिन छूप कर देखा जाय माजरा क्या है । कुछ देर बाद उसने देखा कि एक दुबला पतला आदमी आकर इधर उधर देखने के बाद प्रसाद उठा कर चलते बना ।पीछे से उस निर्धन ब्राह्मण ने आवाज लगाई । "ठहर आज मैं तुम्हें रोज प्रसाद चुरा कर खाने का मजा चखाता हूं।"इस तरह आवाज सुनकर वह आदमी घबराकर ऐसा भागा की वेहोश होकर गीर पडा । उसकी दशा को देखकर उस निर्धन ब्राह्मण का गुस्सा शांत हो गया और करूणा जाग गया । उसने उस आदमी का सिर अपने गोद में लेकर मुंह पर पानी के छीटें मारने लगा । वह मन ही मन पछताने लगा कि मैंने नाहक में इस पर चिल्लायां । बेचारा घबराकर वेहोश हो गया ।उसके चिल्लाने से आस पास के पड़ोसी भी इकट्ठा हो गए थे । थोड़ी देर बाद वह देखता है कि उसके गोद में वेहोश आदमी कोई और नहीं बल्कि भगवान श्री हरि विष्णु ही है जो वेहोशी का बहाना बना कर आंखें बंद करके मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं । सहस्त्रों सुर्य के समान तेज कृति वाले, मेघों के समान श्याम वर्ण वाले ,कमल के पंखुड़ियों के समान सुन्दर नेत्रों वाले परम उदार भगवान श्री हरि विष्णु स्वंय एक निर्धन ब्राह्मण की गोद में आराम से लेटे हुए हैं ।उस समय का यह मनोहारी दृश्य सभी देव देवता देख कर हर्षित हो रहे हैं । भक्त और भगवान का यह सुंदर मिलन कभी कभी देखने को मिलता है । फिर थोड़ी देर बाद भगवान श्री हरि विष्णु के दूत उस ब्राम्हण को विशेष रथ में बैठा कर भगवान के परम धाम वैकुंठ की ओर चल देते हैं ।नगर निवासियों द्वारा जब राजा को यह सब समाचार मिलता है तो उसका मन आत्मग्लानि से भर जाता है । वह अपने गुरु देव को बुला कर सब राज पाट दान देकर आत्म दाह की तैयारी करता है । गुरू देव उसे समझाने की कोशिश करते हैं पर वह कुछ सुनने को तैयार नहीं है ।वह केवल एक ही बात कहता है कि मैंने धन वैभव के द्वारा भगवान की भक्ति पानी चाही पर सब वेकार है केवल निष्काम भक्ति को पाकर एक निर्धन ब्राह्मण जीते जी भगवान के परम धाम वैकुंठ चला गया । और मुझे वैकुंठ तो दुर भगवान के दर्शन भी नसीब नहीं हुए ।मै यह देह का त्याग कर दूं गा । यही मेरा प्रायश्चित होगा मैंने एक निर्धन ब्राह्मण को नाहक में खरी खोटी सुनाई ।मै झुठे धन वैभव के द्वारा भगवान की भक्ति पाने का संकल्प लिया था । यह कहकर उसने अग्नि कुंड में छलांग लगा दी। कुछ समय बाद जब उसने आंखें खोली तो देखता है की परम दयालु भगवान श्री हरि विष्णु के शरीर से सैकड़ो तेज पुंज निकल रहे हैं ।और भगवान श्री हरि विष्णु उसकी ओर देखकर मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं ।वह मन ही मन सोचता है कि गुरू देव की बात आज सत्य हुई । मुझे मेरे प्रभु के दर्शन हुए । तब भगवान श्री हरि विष्णु के मुखारविंद से उसे यह शब्द सुनाई दिए " मैं तो स्वयं लक्ष्मी पति हूं । मुझे धन वैभव से क्या लाभ मैं तो तुम्हारे और उस निर्धन ब्राह्मण के निष्काम भक्ति से खुश हूं । मै प्रेम, श्रद्धा ,और निष्काम भक्ति का आदर करता हूं ।मेरे यहां छोटा या बड़ा कोई मायने नहीं रखता ।" दोस्तों यह कहानी आप को कैसी लगी कमेंट बॉक्स मे दो शब्द जरूर लिखें आपका अपना ही लेखक-भरत गोस्वामी जय श्री हरि ।
बहुत सुन्दर आख्यान ।बहुत-बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteNice...
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