VIDHI KA VIDHAN विधी का विधान A RILIGIOUS STORY
कुछ लोगों का कहना है कि बिना प्रभु के इच्छा के कुछ भी नहीं हो सकता है । प्रभु ही सर्वोपरि है । इस धरती पर ऐसे ऐसे कृत्य हुए हैं । जो यह साबित करने के लिए काफी है । कि बिना प्रभु के इच्छा के कोई भी कार्य सम्भव नहीं हो सकता । विधी के विधान को कोई भी टाल नहीं सकता है ।लोक कथाओं में चर्चित यह कथा भी इसी विषय से सम्बंधित है ।
पुर्व काल में एक ऋषि थे जिनका नाम सुकृष था । जो बहुत ही प्रतिभावान थे । जब भी धरती पर कोई प्रतिभाशाली व्यक्ति होता है । तो सबसे पहले स्वर्ग में उसकी चर्चा होने लगती है । कि अपनी प्रतिभा के प्रभाव से कोई हमारा स्वर्ग ना छीन लेेें । ऋषि सुकृष का प्रतिभा और ज्ञान दोनों ही चरम सीमा पर था । यह बात उस वक्त स्वर्ग में चर्चा का मुख्य विषय बनी हुई थी । बात उड़ते उड़ते हुए देवताओं के राजा भगवान इन्द्र तक पहुंच गई । तो भगवान इन्द्र को भी अपने पद की चिंता सताने लगी । काफी सोच विचार कर भगवान इन्द्र ने ऋषि सुुुुकृष के बारे में जानने की कोशिश की । और इसी दौरान उन्होंने स्वयं एक पंछी का रूप धारण कर के ऋषि सुकृष के समक्ष गये ।और विनम्र होकर कहा "ऋषि वर मैं अत्यधिक हवा के वेग के कारण धरती पर गिर कर वेशुुध हो गया । जब मुझे होश आया तो मैं अपने आप को इतना कमजोर महसूस किया कि मैं अच्छी तरह हिलडुल भी नहीं सकता था । फिर मैंने जरा सी कोशिश कर के, यहां तक पहुंचा हूं । भूख और प्यास से मेरी आत्मा को बहुत तकलीफ़ हो रही है ।आप मेरे प्राणों की रक्षा किजीए ।मैैं आपके शरण मेेंआया हूं।" ऐसे दयनीय प्रार्थना को सुनकर ऋषि सुुुुकृष का ह्रदय करूणा से भर गया ।उन्होंने आदर सहित कहा "पंछी राज आप तनिक चिंता ना करें ।मैं शीघ्र ही आपके भोजन की व्यवस्था करता हूं । आप अधीर मत होइए ।आप केवल इतना ही बताने का कष्ट करें कि आपको कैसे भोजन में रूचि है ।आपके रूचि कर भोजन की व्यवस्था करना हमारी जिम्मेवारी है ।" तब पंछी का रूप धारण किये हुए भगवान इन्द्र ने कहा "ऋषि वर मुझे तो मनुष्य का मांस बहुत रुचिकर लगता है । आप कृपा करकेे मेरे भूख से तड़प रही आत्मा को शांति प्रदान करे । " इस पर ऋषि ने अपने चारों पुत्रों को बुलाया और उन से कहा कि आप लोगों को जो निर्देश दिया जायेगा ।उस पर आप लोग अमल करेंगे या नहीं । चारों पुत्रों ने कहा कि अवश्य आप हमारे पिता है । आपकी आज्ञा शिरोधार्य है । पर जब उन्हें पंछी का भोजन बनना है ।यह ज्ञात हुआ तो चारों पुत्रों ने मृत्यु के भय से पिता की आज्ञा मानने से इन्कार कर दिया ।ऋषि सुकृष को बहुत क्रोध आया । और क्रोध केेे वशीभूत होकर उन्होंने अपने चारों पुत्रों को श्राप दे दिया । "आप लोगों ने पिता की आज्ञा न मानकर केवल मेरा ही अपमान नहीं किया है । अपितु एक गुरू का एवं आतिथ्य का भी अपमान किया है । इस संसार में माता प्रथम गुरु और पिता द्वितीय गुरु होता है । और आतिथ्य और शरणागत का महत्व जग विदित है । अपना सर्वस्व न्योछावर कर के भी शरणागत की रक्षा करना सबका धर्म है । आप लोगों ने इन सभी का अपमान किया है । इस लिए मैं आप लोगों को श्राप देता हूं ।आप चारों पंछी योनि में जन्म लोगे । "
इस तरह शापित होने के बाद ऋषि पुत्रों ने अपने पिता से बहुत अनुनय विनय किया । उनकी इस करूण दशा को देखकर ऋषि सुकृष का ह्रदय पिघल गया ।और उन्होंने अपने पुत्रों से कहा " मेरा दिया हुआ श्राप मिथ्या तो नहीं हो सकता पर मैं इसके प्रभाव को मैं कम कर सकता हूं । भविष्य काल में धरती पर इतना अत्याचार बढ़ जायेगा कि भगवान विष्णु को स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के रूप में जन्म लेना पड़ेगा । धरती के पाप को कम करने के लिए भीषण युद्ध होगा । उसी युद्ध के दौरान आप लोगों का पंछी योनि में जन्म होगा । और एक महा ऋषि शमीक द्वारा आप लोगों का पालन पोषण होगा । उनके सानिध्य में रह कर उनके आहार व्यवहार का अनुशरण करके और उनके द्वारा दिए गए संस्कार का उचित उपयोग करके , ज्ञान, ध्यान,और प्रवचन का अनुशरण करके आप लोग मेरे श्राप से मुक्त हो जाओगे ।"
ऋषि सुकृष ने शीघ्रातिशीघ्र अपने आप को पंछी बने देवताओं के राजा इन्द्र के समक्ष प्रस्तुत कर दिया और मधुर बचन से बोले "आप अपना भोजन ग्रहण करें मैंने अपने आप को आपके भोजन के रूप में समर्पित कर दिया है ।" तब भगवान इन्द्र अपने यथावत रूप में आ गये और ऋषि सुकृष से बोले "आप वाकई महान है ऋषिवर, मैं देवताओं का राजा इन्द्र जलस बस आपकी परिक्षा ले रहा था । लेकिन आप तो मेरे सोच से कहीं ज्यादा बेहतर है । आप ने एक पंछी के कारण स्वयं अपने पुत्रों को इतना बड़ा श्राप दे दिया । आप धन्य है ऋषिवर,धन्य है आपकी कृत्य ,धन्य है आपका आतिथ्य ,धन्य है आपकी शरणागत वत्सलता । दोस्तों आप को कहानी कैसी लगी कमेंट बॉक्स में दो शब्द जरूर लिखें बहुत बहुत धन्यवाद लेखक-भरत गोस्वामी
इस तरह शापित होने के बाद ऋषि पुत्रों ने अपने पिता से बहुत अनुनय विनय किया । उनकी इस करूण दशा को देखकर ऋषि सुकृष का ह्रदय पिघल गया ।और उन्होंने अपने पुत्रों से कहा " मेरा दिया हुआ श्राप मिथ्या तो नहीं हो सकता पर मैं इसके प्रभाव को मैं कम कर सकता हूं । भविष्य काल में धरती पर इतना अत्याचार बढ़ जायेगा कि भगवान विष्णु को स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के रूप में जन्म लेना पड़ेगा । धरती के पाप को कम करने के लिए भीषण युद्ध होगा । उसी युद्ध के दौरान आप लोगों का पंछी योनि में जन्म होगा । और एक महा ऋषि शमीक द्वारा आप लोगों का पालन पोषण होगा । उनके सानिध्य में रह कर उनके आहार व्यवहार का अनुशरण करके और उनके द्वारा दिए गए संस्कार का उचित उपयोग करके , ज्ञान, ध्यान,और प्रवचन का अनुशरण करके आप लोग मेरे श्राप से मुक्त हो जाओगे ।"
ऋषि सुकृष ने शीघ्रातिशीघ्र अपने आप को पंछी बने देवताओं के राजा इन्द्र के समक्ष प्रस्तुत कर दिया और मधुर बचन से बोले "आप अपना भोजन ग्रहण करें मैंने अपने आप को आपके भोजन के रूप में समर्पित कर दिया है ।" तब भगवान इन्द्र अपने यथावत रूप में आ गये और ऋषि सुकृष से बोले "आप वाकई महान है ऋषिवर, मैं देवताओं का राजा इन्द्र जलस बस आपकी परिक्षा ले रहा था । लेकिन आप तो मेरे सोच से कहीं ज्यादा बेहतर है । आप ने एक पंछी के कारण स्वयं अपने पुत्रों को इतना बड़ा श्राप दे दिया । आप धन्य है ऋषिवर,धन्य है आपकी कृत्य ,धन्य है आपका आतिथ्य ,धन्य है आपकी शरणागत वत्सलता । दोस्तों आप को कहानी कैसी लगी कमेंट बॉक्स में दो शब्द जरूर लिखें बहुत बहुत धन्यवाद लेखक-भरत गोस्वामी
कहानी आपकी बहुत अच्छी लगी।
ReplyDeletenice
ReplyDeleteVery nice
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