RAJA VIKARMADITYA राजा विक्रमादित्य A Religious Story
राजा विक्रमादित्य एक ऐसे राजा थे। जिनका नाम राजाओ के श्रेणी मे सबसे उपर आता है । मानव तो मानव ही है देवता, दानव भी उनकी इज्जत करते थे। यहां तक की वे पशु पंछी और जानवर तक की भाषा समझने मे पारांगत थे । उनके जीवन की एक सच्ची घटना जो पौराणिक कथाओ मे प्रसिद्ध है।
पूर्व काल मे एक बार लक्ष्मी और धर्मराज मे श्रेष्ठता को लेकर बहस हो गई। धर्म बोल रहे थे मै बड़ा, और लक्ष्मी बोल रही थी मै बड़ी, दोनो मे इस बात को लेकर इतनी बहस हुई की दोनो सही का स्थिति पाने के लिए देवताओ के राजा इंद्र के यहां पहुचे। बहुत देर बिचार करने के बाद इंद्र ने सोचा इनके पचेडे मे पडने के बजाय इनसे छुटकारा पाने मे ही भलाई है। कुछ देर बाद इंद्र ने कहा " आप दोनो महान व्यक्तित्व वाले देवता हो आप दोनो के बारे मे सही निर्णय लेना मेरे बस कि बात नही। आप दोनो पृथ्वी पर जाइए वहां एक बहुत ही प्रतापी और धर्म निष्ठ राजा है उनका नाम राजा विक्रमादित्य है। वहां आपको सही न्याय सही फैसला मिलेगा । दोनो राजा विक्रमादित्य के दरबार मे पहुचे और अपनी बात उनके समक्ष रखा। कुछ देर सोचने के बाद राजा विक्रमादित्य ने कहा कि धर्म श्रेष्ठ है। इतना कहना था कि लक्ष्मी नाराज हो गई और उनके जाते ही राजा का वैभव भी समाप्त हो गया। अब राजा फकीर हो गये और उन्होने अपना सब कुछ छोड़ कर अंजान जगह पर जाना चाहते थे जहां उनको कोई नही जानता था , इसी धेय्य से उन्होने अपना गृह त्याग कर चल दिये। कुछ दूर चलने के बाद राजा को बहुत तेज भूख लगी और वह भोजन के लिए सोच विचार करने लगे । चलते चलते उन्हे एक नदी दिखाई दिया और उन्होने कुछ मछली पकड़ कर उन्हे आग पर भूज दिया ।और सोचा कि स्नान ध्यान के बाद खा लेगे। उन्होने स्नान ध्यान के बाद सोचा की भोजन ग्रहण करले। इतना सोचना ही था कि मां लक्ष्मी के प्रकोप से उनके आंखों के सामने ही भूजी गयी मछलियां पानी मे कुदने लगी। फिर नदी का पानी पीकर ही अपने क्षुधा को शान्त किया और आगे के लिए चल पडे़ । कुछ देर चलने के बाद उनके एक मित्र राजा का महल दिखाई दिया और कुछ मदद के लिए अपने मित्र राजा के यहां चले गये । मित्र राजा ने उनका स्वागत किया और और उनके सेवा सुश्रुषा मे लग गया। जहां उन्हे बैठाया गया था। वही पर मित्र राजा कि पत्नी का नौलखा हार रखा हुआ था। देखते देखते उस हार को दिवाल नीगल गई । मित्र राजा की पत्नी ने राजा विक्रमादित्य पर चोरी का इल्जाम लगया। मित्र राजा अपनी पत्नी को बहुत समझाया कि मेरा मित्र चोर नही है। पर उसकी पत्नी ने एक नही सुनी और वहां से तुरन्त निकल जाने का आदेश दिया। राजा विक्रमादित्य वहां से प्रस्थान कर गये रास्ते मे उनके बहन का घर आया ।वहां बहन ने उनके रहने खाने का प्रबंध टकसाल (घोड़े का घर ) मे करवा दिया ।और वही पर रुखा सुखा खाना भेज दिया। राजा को भूख तो लगी थी, पर बहन के इस व्यवहार से वे खुश नही थे। अतएव उन्होने पूरा भोजन भूमी माता को सौप दिया और मात्र पानी पीकर ही वहां से चल दिये । चलते चलते एक अंजान राज्य मे पहुंचे, वही पर एक वृक्ष के नीचे अपना अश्व बांध कर विश्राम करने लगे। वही उसी समय राजा के यहां चोरी हुई और चोर राजा विक्रमा दित्य के यहां ही चोरी किया हुआ धन छोड़ कर भाग गये। राजा इन सब बातों से अंजान थे। धन की तलाश करते राजा के सैनिक जब वहां पहुचे तो धन के साथ वहां राजा विक्रमादित्य भी मिल गये। सैनिको ने राजा विक्रमादित्य को ही चोर समझ लिया और अपने राजा के यहां हाजिर किया। धन राजा विक्रमादित्य के पास ही मिला था इसलिए उन्हे चोर धोषित कर दिया गया। राजा विक्रमादित्य ने लाख अनुनय विनय किया। पर उनकि एक बात नही सुनी गई और उनका हाथ पैर तोड़ कर चौराहे पर छोड़ दिया गया। कुछ समय बाद एक तेली तेल बेचने के लिए वही से गुजर रहा था। राजा विक्रमादित्य दर्द से कराह रहे थे। तेली बहुत ही भावुक किस्म का आदमी था राजा की दशा देख कर उससे नही रहा गया। वहां से गुजरते कई लोगो ने तेली से सारी दास्तान बताई और कहा कि इसकी किसी प्रकार की मदद करने पर तुम भी इसके साथ सजा पाओगे। तेली असमंजस मै पड़ गया। इधर दर्द से कराहता हुआ एक निस्हाय व्यक्ति और दुसरी तरफ राजा का डर अंत मे उसके जमीर ने उस कराहते हुए व्यक्ति का साथ देने का निर्णय किया। उसने अपने सामान से थोड़ा सा तेल निकाल कर राजा विक्रमादित्य के जख्मो पर लगाने लगा। थोड़ी सेवा भाव के बाद वह तेली अपने धंधे पर चला गया। उस समय उसके साथ एक घटना घटी पुरे समय बहुत अच्छा धंधा हुआ और तेल वैसे का वैसा ही पडा़ था । उसे बहुत आश्चर्य हुआ और यह बात घर पहुंच कर तेली ने अपनी पत्नी को बताया। उसकी पत्नी और वह उस रात सो नही पाये। पुरी रात उन्हे इस अचंभित घटना ने उन्हे सोने नही दिया। तेली निःसंतान था। उस व्यक्ति की ब्यथा कथा सुन कर उसकी पत्नी को उस व्यक्ति के प्रति बात्सल्य उमड़ पडा़। और उसने तेली से कहा कि अपनी कोई औलाद नही है। क्यो न हम उसे लाकर अपनी औलाद घोषित कर दे इससे उसकी मदद भी हो जायेगी और हमारा बात्सल्य का सपना भी पुरा हो जायेगा। उन्होने निर्णय लिया कि उनके अपने राजा इस कृत्य की जो भी सजा देगे ।हम स्वीकार कर लेंगे लेकिन हम अपनी इच्छा अवश्य पुरी करगे। दुसरे दिन तेली ने राजा के दरबार मे अपना आग्रह प्रस्तुत किया राजा को अपना धन तो वापस मिल ही गया था इसलिए उनको इस बिषय मे कोई रुचि नही थी ।उन्होने तेली के आग्रह को मंजूरी दे दी। फिर क्या था। दोनों राजा विक्रमादित्य के सेवा मे जुट गये और अपने बात्सल्य का पुरा आनंद लिया। वे राजा विक्रमादित्य को अपनी संतान मान चुके थे। कुछ ही दिनो मे तेली इतना घनाढ्य हो गया कि शहर के अमीर लोगो मे उसकी गिनती होने लगी। कुछ दिनो बाद उसी राज्य मे एक घटना घटी। वहां की राज कुमारी राग मल्हार मे परांगत थी। उसने अपने राग मल्हार प्रयोग के द्वारा अपने राज्य मे दीप प्रज्वलित किया और बुझा दिया। उसने क ई बार ऐसा किया तो राजा विक्रमादित्य भी राग मल्हार के इस विद्या मे निपूण थे। उन्हे यह कृत्य अच्छा नही लगा इसलिए उन्होने बुझे हुए दीपो को प्रज्वलित कर दिया ।राजकुमारी समझदार थी वह थोड़ी देर मे ही सारा मामला समझ गयी। वह अच्छी तरह से जानती थी कि राजा विक्रमादित्य के अलावा इस कृत्य को कोई अंजाम नही दे सकता है। उसे बहुत खुशी हुई कि किसी न किसी रुप मे राजा विक्रमादित्य उसके राज्य मे निवास कर रहे है। राजा विक्रमादित्य से मिलने की लालशा तेज हो गयी ।उनसे जल्दी ही मुलाकात हो यह सोच कर राजकुमारी ने अपना स्वयंबर रख दिया। शहर मे हर तरफ राजकुमारी के विवाह के स्वयंबर की चर्चा चल रही थी ।जब यह बात राजा विक्रमादित्य के कानो मे पडी़ तो उन्हे भी स्वयंवर देखने की इच्छा हुई। और उन्होने अपने मानस पिता उस तेली को अपनी इच्छा बताई। तेली ने कहा " पुत्र आपकी हर इच्छा का ध्यान रख़ना अब हमारा कर्त्तब्य है ।आपकी हर इच्छा पुरी होगी। आप स्वयंबर अवश्य जायेगे। " बक्र शरीर धारी राजा विक्रमादित्य को सुन्दर वस्त्रो से सजा सवराकर तेली स्वयंबर देखने चला गया। स्वयंवर शुरु हुआ राजकुमारी हाथ मे बरमाला लिए अपने इच्छित बर की तलाश करने लगी। राजा विक्रमादित्य अपने मानस पिता तेली के साथ वहां आम आदमियो के बीच बैठे हुए थे। उनके मुख मंडल पर सूर्य के समान तेज आभा थी। राजकुमारी समझ गई की इतना तेजवान मुख मंडल एक आम आदमी का नही हो सकता यह अवश्य ही राजा विक्रमादित्य है। और राजकुमारी ने मन ही मन उन्हे अपना स्वामी मान लिया। और बरमाला राजा विक्रमादित्य के गले मे डाल दिया ।बरमाला गले मे डालते ही उस राज दरबार मे हडकम्प मच गया , वहां एक से एक बढकर राजकुमारो की भरमार थी उन सब को छोड कर राजकुमारी ने एक आम आदमी जो शरीर से अपंग है उसके गले मे बरमाला डाल दिया किसी के कुछ समझ मे नही आ रहा था यह क्या हो रहा है। कन्या पक्ष के हितैषी व्यक्तियों ने राजकुमारी को समझाने की बहुत कोशिश की पर राजकुमारी अपनी जिद्द पर अड़ी रही। अंततः हार माथ कर वहां के राजा ने सुयोग्य पंडितो द्वारा विधिविधान से राजकुमारी की शादी कर दिया । विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और उसके मानस पिता तेली राजकुमारी को लेकर अपने घर आ गये । तेली मन ही मन सोच रहा था इतनी बड़ी राजकुमारी हमारे घर कैसे रह पायेगी ।पर राजकुमारी ने अपने सादगी भरे व्यवहार से सबका दिल जीत लिया। कुछ दिनो बाद राजा विक्रमादित्य को हिरण का मांस खाने का दिल किया उन्होने राजकुमारी को उसके घर भेज़ दिया और कहा कि अपने भाइयों से कहना कि मैने हिरण का मांस मागा है। राजकुमारी ने अपने घर जाकर अपने भाइयों से कहा कि मेरे पति देव ने हिरण का मांस खाने की इच्छा जताई है। उसकी किसी ने एक नही सुनी और राजकुमारी का अपमान कर दिया। राजकुमारी खाली हाथ लौट आई । आकर उसने राजा विक्रमादित्य को सारी बात बताई। तब राजा विक्रमादित्य ने कहा तुम उनके यहां जाओ और मेरा घोड़ा और मेरी तलवार मांग लाओ। मै खुद शिकार को जाउंगा ।दुसरे दिन राजकुमारी अपने घर गई और उसने अपने भाइयों से अपने पति का घोड़ा और तलवार मांग लाई। उसके भाइयों को भी उस व्यक्ति के घोड़ा और तलवार से कोई रूचि नही थी इसलिए राजकुमारी को अपने पति का घोड़ा और तलवार लेने मे कोई दिक्कत नहीं हुई । राजा अपने घोडे को लेकर बन को चल दिये उस दिन जितने जानवर दिखे राजा विक्रमादित्य ने उनके कान और पूंछ काट लिए और घर पर लौट आये। उसी दिन राजकुमारी के भाई भी शिकार करने गये हुए थे यह देखकर राजा विक्रमादित्य के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान दौड़ पड़ी उन्होने समझा बुझाकर राजकुमारी को उसके भाइयो के यहां भेजा और राजकुमारी से कहां आप अपने भाभीयो से अपने अपमान का बदला लीजिए ।मेरे ही किये हुए शिकार को आपके भाई पकड कर ले गये हैं ।और अपनी बीबीयो के सामने ढींगे हां क रहे हैं। आप उनके इस खुशी को मातम मे बदल सकती हैं। ठीक वैसा ही हुआ राजकुमारी ने सबके सामने वह थैली का माल उडैल दिया और कहां कि आप सभी यहां जो शिकार देख रहे हैं। वह सभी मेरे पति ने दो दिन पहलेही घायल करके छोड़ दिया था। इसका साक्षात प्रमाण आपके सामने है ।इन शिकारो के कटे हुए कान और पूंछ ।भाभीयो ने बहुत शर्मिंदगी महसूस किया और राजकुमारी के साथ किये हुए अपमान की क्षमा मांगी। कुछ दिन बीतने के बाद तेली ने राजा विक्रमादित्य से पुछा आप के हाथ पैर तो सही नही है पर आप कोईभी कार्य बडा आसानी से कर लेते है ।तब राजा विक्रमादित्य ने कहा " मै राजा विक्रमादित्य हुं और उन्होने पुरी दास्तान उस तेली को सुना दिया ।तेली राजा विक्रमादित्य के चरणों मे गिर कर अपने कृत्य के लिए माफी मागने लगा उसने कहा राजन हमने अंजाने मे आपको अपना पुत्र मानने की जो भूल की है उसके लिए तो हम आपके अपराधी है।हमे माफ कर दीजिए गा। जैसे ही ये बात राजा तक पहुची तो वे अपने आप को बहुत भाग्य शाली समझने लगे ।और बहुत धन धान्य देकर राजा को विदा किया ।राजा तेली और उसकी पत्नी और अपनी पत्नी को लेकर अपने राज्य की तरफ चल दिये । रास्ते मे मित्र राजा से मिलने गये जिनकी पत्नी का हार चोरी हुआ था। और मित्र राजा की पत्नी ने बहुत अपमान किया था । राजा विक्रमादित्य के वहां से जाते ही वह हार वही टंगा हुआ दिखाई दिया इसलिए मित्र राजा की पत्नी बहुत शर्मिंदा थी जब राजा विक्रमादित्य सामने आये तो उस मित्र राजा कि पत्नी क ई बार माफी मांगी ।राजा विक्रमादित्य ने कहा कि माफी मांगने की जरुरत नहीं। उन्होने कहा कि आदमी का जब बुरा दिन आता है तो ऐसा ही होता है। तब वे अपने बहन के यहां गये जहां उनकी सगी बहन ने उन्हे टकसाल मे ठहराया था। और खाने को सुखी रोटी दिया था ।बहन ने भी अपनी गल्ती स्वीकार किया और माफी मांगी।
राजा अपने नगर आये तो उनका दरबार मे बहुत स्वागत हुआ अपने राजा को सही सलामत देख कर वहां के लोगो ने खुशी खुशी जश्न मनाया। वही राज दरबार धर्म राज और मां महा लक्ष्मी भी उपस्थित थे। मां महा लक्ष्मी ने विक्रमादित्य से कहा वत्स आप सही थे। मै गलत थी धर्म मेरे से श्रेष्ठ है। इसमे कोई शंका की बा त नही है। दोस्तों आपको यह कहानी कैसी लगी कमेंट सैक्सन मे जरूर लिखिए । मां महा लक्ष्मी से सम्बंधित दो आर्टिकल अवश्य पढिए "एक और परीक्षा "/ "जय श्री बद्री नाथ" । ---- --भरत गोस्वामी मुम्बई /भारत
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