JAI SRI BADARINATHजय श्री बद्रीनाथ A RELIGIOUS STORY

 यह एक   अत्यंत  प्रिय  पौराणिक  कथा है  जिसके  पठन , पाठन और  श्रवण  मात्र  से  मनुष्य  जीवन  के सभी  कष्ट  दूर  हो जाता है और  वह मनुष्य  अपने  आप  को  धन्य समझता  है इस धाम का  दर्शन  भी उतना  ही  सुखदायी  है इस कथा मे भगवान श्री  हरि विष्णु की  एक पुण्य  कृति को  दर्शाया  गया  है।                                  पूर्व काल  मे दुर्गम  नाम का  एक  राक्षस  था। जो भगवान  सुर्य  का  परम भक्त  था  । अपनी तपस्या से भगवान सुर्य को खुश करके अमरता का बरदान मांगा।   भगवान   सुर्य ने  उसे  मना कर दिया और कहा कि  अमरता  का  बरदान केवल  भगवान भोलेनाथ और मां  अम्बे  ही  दे सकते है  और  किसी  को अमरता  का  बरदान  देने  का  अधिकार नही है। तब  उस  राक्षस  ने  अपनी  माया से  भगवान  सुर्य को भ्रमित  करके  कहा कि"ठीक है आप  मुझे अमरता का बरदान नही दे सकते तो ऐसे सौ कवच का  बरदान दे दीजिए जिसका  छेदन वही  व्यक्ति कर सके जौ सौ  वर्षो की  धोर  तपस्या पूरी  किया  हो " ।  भगवान  सुर्य ने   उसे सौ कवच का बरदान  दे  दिया।  और  कहा कि " इन  कवच की छेदन की क्षमता  उसी व्यक्ति को होगी जो  सौ वर्ष  की  धोर  तपस्या पूरी कर लिया हो ।                                                        कुछ दिन बाद उस  राक्षस को प्रभुता का मद  होने  लगा तो वह देव, दानव ,चर, चराचर ऋषी, मुनी सब को त्रस्त  करता चला गया। देव लोग उसके  अत्याचार  से  परेशान होकर  उससे  निजात  पाने  का  उपाय  सोचने  लगे और अन्त  मे  उन्होने  विश्व के  पालन हार  श्री  हरि  विष्णु के अत्यंत प्रिय  धाम वैकुंठ   पहुँचे ।और  श्रीहरि विष्णु  से  याचना  करने  लगे। "हे प्रभु  दीन दयाल हमारी  मदद  कीजिए "। और उन्होने अपनी  सारी  ब्यथा  भगवान  श्री  हरि नारायण  को  सुना डाली ।उन्होने  कहा  " प्रभु  इस समय  धरती  पर  दुर्गम नाम के  एक राक्षस ने  अपनी मूर्खता पूर्ण  व्यवहार  से  सभी  प्राणियो  ऋषि,  मुनी, देव ,दानव , चर  ,चराचर  सभी को इतना त्रस्त  कर  दिया  है कि  हमारा जीवन  जीना  दुर्भर कर दिया  है। हे विश्व  के  पालन एंव रक्षनहार  हमारी  रक्षा करे। हम सब आपकी  शरण मे आये  हुए  है।"        उनकी  अति  दयनीयता  पूर्ण बाते  सुन कर प्रभु  श्री  हरि  विष्णु ने  उन्हे  आश्वासन  दिया  कि मै  आप  लोग की रक्षा हेतु  कुछ न कुछ  अवश्य  करूंगा ।   कुछ  दिन बाद श्री हरि  विष्णु ने  आत्म  चिंतन के द्वारा यह जान लिया कि धरती पर  मात्र केदार नाथ जी  ही ऐसी जगह है,   जहां पर  तप करने  से एक दिन मे  सहत्र  वर्षो का  फल  मिल  जाता  है।                          पर  समस्या  यह थी कि वह क्षेत्र भगवान  श्री  भोलेनाथ का  था। उस क्षेत्र मे जाकर बिना उनकी  आज्ञा के   तपस्या करना एक  घोर  अपराध  के  बराबर  था। पर भगवान श्री हरि विष्णु   के  पास और कोई  रास्ता  शेष न  था।       उन्होने अपनी  योग  माया से  एक  बालक  का रूप बनाकर एक  शीला  पर  बैठ कर रूदन  करने लगे। रूदन का  स्वर इतना  दर्दनीय था कि  मां  पार्वती के  कानो  तक  वह ध्वनि  पहुंची।, मां  का दिल तो  इतना  कोमल  होता  है कि  बच्चे  का  रूदन उनसे बर्दास्त नही  होता, उस  वक्त   कुछ  ऐसी  ही स्थिति  मां  पार्वती  की  थी।                          जब  मां  पार्वती  से  नही रहा  गया तो उन्होने  भगवान  भोलेनाथ से  अपने  दिल के तड़प का  जिक्र  किया और उस  बालक  को  देखने  के लिए भगवान  भोलेनाथ से  आज्ञा  मांगने  लगी  । भगवान  भोलेनाथ तो अन्तर्यामी  थे  वे  भगवान श्री हरि  विष्णु के  मनसे  को जान  गये  और  उन्होने  माता  पार्वती  को  वहां  जाने  की  आज्ञा  दे दी।  जब मां  पार्वती बालक के  समक्ष पहुंच कर बालक को  रूदन करते  देखा तो उनकी करूणा छलक उठी उन्होने  बालक  को  गोद  मे उठा  लिया और अपने  वात्सल्यपूर्ण व्यवहार  के  सरोवर  मे डुबा दिया  । 

   बालक उनके  वात्सल्य प्रेम के  सागर  मे  ढुब कर अपने आप को धन्य  समझने  लगा  ।और उनके  गोद  मे जाते  ही  चुप  हो गया फिर  मां  पार्वती यह सोचने  लगी कि इस निर्जन  स्थान  पर  इस  बालक  को इस दशा मे  कौन  छोड़  गया  होगा ? इसी उधेड़ बुन  मे  व्यस्त  माता ने बालक  को  अपनी कुटिया  मे ले गयी और  अपना  मातृत्व  सुख  देकर  उस  बालक  को  सुला  दिया  ।  पर वह  बालक  कोई  साधारण  बालक  नही था। उसने  सोचा कि  मां  जगत जननी पार्वती  ने  मुझे अपना  वात्सल्य सुख  देकर  अपना  पुत्र  होने  का  अधिकार  तो  दे दिया अब मै  पूर्ण रूप से उनका  पुत्र कहलाने  का  अधिकारी  हो गया हूं  ।अब मुझे  इस स्थान  पर  तपस्या करने के लिए भगवान भोलेनाथ और मां  पार्वती की  आज्ञा  आसानी  से  मील  जायेगी।                                थोड़ी  देर बाद जब  मां  पार्वती अपनी  कुटिया  मे  गयी  तो वहां चतुर्भुजधारी श्री हरि विष्णु को  शय्या पर सोते  देख कर बड़ा आश्चर्य चकित  हो गयी  ।तो उन्होने भगवान  श्री  हरि विष्णु से  इस  तरह  आने  का  कारण  पुछा  तो  देवाधिदेव भगवान  भोलेनाथ  ने  मां  पार्वती  से कहा   "पार्वती  ये  जन कल्याण के लिए इस  स्थान पर  तपस्या  करना  चाहते  है। जो  संकोच वश  इस लीला  द्वारा  ही  सम्भव  था।  मेरे  आराध्य भगवान  श्री हरि विष्णु ऐसे  ही कोई  लीला  नही करते, उसके  पीछे  कोई न  कोई  उद्देश्य  अवश्य  रहता  है। आपका वात्सल्य  प्रेम  पाकर यह आपका पुत्र होने  का  अधिकार  पा चुके  है। अतः  इनको अपने उद्देश्य पूर्ति  का  आशीर्वाद  दे  दीजिए।"                            तब  भगवान  श्री हरि विष्णु ने मां पार्वती से यहां  तपस्या करने की  आज्ञा  मांगी। जो  जन कल्याण के लिए बहुत  जरूरी  थी। आज्ञा  पाने के बाद श्री हरि विष्णु ने शक्ति  अर्जित  करने के लिए यहां  घोर  तपस्या किया । उसी  समय वहां पर एक और  घटना  घटी ।एक  ऋषि  पत्नि  को  संतान नही  हो  रही थी  ।संतान  सुख  से  बंचित  ऋषि  पत्नि थोड़ी  ही  दूरी  पर  संतान  प्राप्ति  के लिए  श्री  हरि  विष्णु की  पुजा  अर्चना  कर  रही  थी।  उसके  पुजा  अर्चना  से प्रसन्न  होकर उसको  दो संतान  होने  का वरदान  दिया  ।और  कहा" मै तुम्हारी  पुजा  अर्चना  से  प्रसन्न  होकर  तुम्हे  दो पुत्र  होने  का  वरदान  दे  रहा हूं। एक  का नाम नर और दुसरे  का नाम नारायण होगा।  आगे चल कर नर  नारायण  बहुत ही  तेजस्वी  होंगे ,और धरती पर उनकी  कृति को  हमेशा  स्मरण  किया  जायेगा ।"           ऐसा कहकर भगवान  श्री  हरि विष्णु  वहां से  प्रस्थान  कर  गये  । कुछ  दिन बाद नर और नारायण का  जन्म  हुआ । वे दोनो दिन दौगुनी  रात  चौगुनी  बढने  लगे  । भगवान श्री हरि विष्णु के योग  माया से  प्रभावित  होकर  एक  दिन  नारद जी सहत्राकवच के यहां  दानव  लोक  पहुंचे  ।अपने  मद मे चूर  राक्षस  सहत्राकवच(दुर्गम) ने  नारद जी का  स्वागत किया और  वहां आने  का उद्देश्य पुछा  । तब नारद जी ने कहा   " यहां  तुम  ऐश  कर  रहे  हो, वहां  केदार  पर्वत  ( उत्तराखंड ) पर  दो  सन्यासी नर और नारायण तुम्हारे  अन्त के  लिए  घोर  तपस्या  कर  रहे  है। " नारद जी के इस  बचन  को  सुन कर  सहत्राकवच आग  बबुला  हो गया और उसने एक  विशाल  सेना  को  आज्ञा  दिया  कि  केदार  पर्वत  जाकर  उनकी  तपस्या को  भंग  कर दो  ।उसकी  सारी  सैन्य  शक्ति  धरी की धरी  रह गयी। उन  सन्यासियो का  कुछ  अहित  न  कर  पायी  । तब  स्वयं  राक्षस  सहत्राकवच जाकर उनको  युद्ध के  लिए  ललकारने  लगा । सन्यासियो को जब  यह बात  मालुम पड़ी तो  पारी  पारी  से  नर  नारायण ने  युद्ध  करके  उसका  निनाबे कवच  नष्ट  कर  दिया। जब  उसके  पास  आखीरी कवच  शेष  रह गया  तो  उसने युद्ध  से  पलायन  करके  भगवान  सुर्य देव  की  शरण  मे भाग  गया ।                तब भगवान श्री हरि  विष्णु  ने  सोचा की  हमे और  शक्ति अर्जित  करनी  पडेगी  ।तब उन्होने और घोर  तपस्या  शुरु कर  दिया।   जब  नारद  जी के  द्वारा   माता लक्ष्मी को  यह बात  ज्ञात  हुई  तो वे केदार पर्वत पर पहुंच  कर ,एक  बृक्ष  का रूप लेकर  धूप ,वायु  वर्षा   से भगवान श्री हरि विष्णु की  रक्षा करने लगी । जब भगवान श्री हरि विष्णु की  तन्द्रा  टुटी  तो  मां लक्ष्मी  को  इस  रूप  मे देख कर भगवान श्री हरि विष्णु ने उन्हें  यह  आशीर्वाद  दिया कि "इस  कृत्य के  लिए आप  युगो युगो  तक  याद  की  जायेंगी ,और यह स्थान  मेरा एक प्रिय  स्थान होगा जो  श्री बद्रीनाथ  के नाम  से  प्रसिद्ध  होगा। "                        तब नर और नारायण ने सुर्य  लोक  जाकर सुर्य भगवान  से  सहत्राकवच कि  मांग  की पर  सुर्य देव ने  सहत्राकवच  को देने  से  इन्कार  कर दिया। और कहा कि  "भगवन आपने ही कुछ  मर्यादित  नियम  बनाये। शरण  मे  आये  हुए  व्यक्ति  की  रक्षा  करना हमारा  परम  कर्त्तव्य  है। इस लिए  हम  इसे  आपको  नही  दे  सकते  पर, हम आपके  इस पुण्य  कार्य  मे  बाधा भी  नही  डाल  सकते।  यह जो  नर नारायण   आपके ही  दो रूप  है। इन्हीं के  द्वारा  सहत्रा कवच का  वध  होगा  जब आप  द्वापर  युग मे भगवान  श्री कृष्ण (नारायण) और  नर (अर्जुन) के  रूप  मे जन्म  लेंगे  तो  सहत्राकवच ( कर्ण ) के  रूप  मे  जन्म  लेगा। और नर (अर्जुन ) के  हाथो  इसका  वध  होगा  । वह स्थान  जहां  आपने  शक्ति  अर्जित की  वह  बद्रीनाथ  धाम के नाम  से  जाना  जायेगा  ।                                     दोस्तो  यह  पौराणिक  कथा  आपको  कैसी लगी दो  शब्द   कमेंट  बॉक्स मे अपने नाम के साथ जरूर  लिखिए  धन्यवाद -लेखक  भरत गोस्वामी  


Comments

  1. वामन पुराण के अनुसार नर और नारायण धर्म के पुत्र थे।
    नर और नारायण ने प्रहलाद को युद्ध में हराया था।
    सहस्त्र कवच ही कर्ण था। आपकी रचना को पढ़ कर बहुत प्रसन्नता हुई

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  2. सुन्दर जय श्री कृष्ण राधे राधे सदगुरु देवाय नमः

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  3. अति सुंदर हृदय को स्पर्श कर गई

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