SHARDHA AUR VISHWASHश्रद्धा और विश्वास A RELIGIOUS STORY
श्रद्धा और विश्वास दो ऐसे शब्द है, जो हर व्यक्ति के जीवन मे एक विशेष स्थान रखते है। । बिना श्रद्धा और विश्वास के बिना मनुष्य का जीवन सुना है। इसके कारण मनुष्य का बडा से बड़ा कार्य भी सुगम तरीक़े से सम्भव हो जाता है। यह कहानी महाभारत काल के उस समय की है, जब पाडंव अज्ञात वास का समय व्यतीत कर रहे थे। रात्रि का समय सभी भाई एकत्र होकर अपनेे सुुुुखद दिनो की याद के बारेे मे चर्चा कर रहे थे। उनको आपस मे इस तरह की बात करते देेेख बड़े भाई युधिष्ठिर ने कहा,"इस तरह सुुुुखद दिनो की याद करके सुुुखी होना और दुखद दिनो की याद करके दुखी होना एक क्षत्रिय वीर को शोभा नही देता। सुख और दुख मनुष्य के जीवन में आते जाते रहते है। एक वीर पुरूष को कभी इस बारे मे उतावला ना होकर एक सरिखे रहना चाहिए । यही एक धीर बीर की निशानी है। मनुष्य के जीवन काल मे जब सुखद परिस्थिति आती है तो वह उसमे इस तरह खो जाता है कि वह यह भी भूूूल जाता है , कि मनुष्य परिस्थितियो का दास होता है । मनुुुुुष्य को हमेशा एक समान रहना चाहिए ।चाहे वह सुुुुख या दुख मनुष्य का सबसे पहला धर्म है की वह ईश्वर पर श्रद्धा और विश्वास रखे। मनुुुष्य के जीवन के अच्छे बुरे सभी परिस्थितियो के विषय मे बात करते करते सभी भाई नीद के आगोश मे चले गये। प्रातः उठ कर नित्य क्रिया से निवृत होकर पूूूूजा अर्चना केे कार्य को निपटाकर उन्होने अल्पाहार लिया सब भाई अपने निर्धारित कार्य मे जुुुट गये । भीम और अर्जुन फल फूल के लिए एक दिशा मे चले गये ।एक दिशा मेे नकुल और सहदेव सुखी लकडी लेने के लिए निकल पड़े । और युुुुधिष्ठिर भी वन्य प्रदेेेश मे निकट मे ही रह रहे निवासियो की समस्या को निपटाने के लिए चले गये। उनके जाने के कुुुछ पल बाद ही ऋषी र्दुवासा अपने कुछ शिष्यो के साथ वहां आये। उस वक्त द्रोपदी नित्य कर्म करतेे हुए अपने अतीत के विचार मे लीन थी । किसी के आने की आहट पाकर वह कुुुुुटिया केे मुख्य द्वार पर पहुँची ।ऋषि र्दुवासा को अपने शिष्यो के साथ सामने खड़ा देख कर द्रोपदी ने नम्रता पुर्वक उनका अभिवादन किया और एक स्थान पर उन्हे आसन ग्रहण करने की विनती की। परन्तु ऋषि र्दुवासा नेे कहा " पुत्री हम नदी स्नान के लिए जा रहे है। वहां से लौटने के बाद तुम्हारे यहां भोजन ग्रहण करने के बाद ही हम आगे की यात्रा तय करेगे । "ऐसा कहने केे बाद ऋषि अपनेे शिष्यो के साथ नदी की ओर चलेे गये । द्रोपदी ने ऋषि र्दुवासा केे बारे मे सुन रखा था । अपनी इच्छा पुरी न होने पर वह तुरन्त नाराज हो जातेे है। वह रसोई स्थान को कई बार देेख चुकी थी कही कुुछ भी खाने या खाना बनाने के लिए नही था। वह बड़े धर्म संकट मे पड गयी । विचारो मेे उलझते पुलझते उन्हे अपने सखा भगवान श्री कृष्ण की याद आई। उन्होने मन ही मन भगवान श्री कृष्ण को याद किया। संसार के सभी प्राणियो के संकट का निवारण करने वाले कृृृृपानिधान आप हमारे इस संकट को दूर करे। हे गिरधारी हमारी इस समस्या का कोई समाधान दीजिए नही तो ऋषिवर हम पर रूष्ट हो जायेगे । कुछ पल बाद ही भगवान श्रीकृष्ण वहां पधारे और द्रोपदी से उन्हे याद करने की वजह पूछा तब देवी द्रौपदी ने अपनी ब्यथा कथा भगवान श्री कृष्ण को सुनाया। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हे रसोई को एक बार अच्छी तरह से देखने को कहा द्रोपदी भगवान श्रीकृष्ण के कहने पर रसोई को एक बार और अच्छी तरह से देखने लगी। कुछ देर बाद उन्हें रसोई पात्र के एक कोने मे अन्न का एक दाना मिला उसे ले जाकर भगवान श्री कृष्ण को दिखाने लगी। मुस्कराते हुए भगवान श्री कृष्ण ने उस अन्न के एक दाने को अपने मुंह मे डाल लिया। तब द्रोपदी ने पूछा भगवान आप इस तरह क्यो मुस्कुरा रहे है ? तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा "सखे तुम निश्चिंत हो जाओ तुम्हारा कल्याण हो गया है। " और ऐसा कह कर भगवान श्री कृष्ण वहां से चले गये। थोड़ी देर बाद जब ऋषी र्दुवासा अपने शिष्यो के साथ वहां आये तो द्रौपदी ने उन्हें आसन ग्रहण करने को कहा, तब ऋषि र्दुवासा ने कहा " पुत्री हम तुम्हारे आथित्य से बहुत खुश है। हमारी भोजन ग्रहण करने की इच्छा नही है। अपितु हम आगे की यात्रा प्रारंभ करने जा रहे है। अखंड सौभाग्यवती भव। ऐसा कह कर ऋषि अपने शिष्य के साथ निश्चित दिशा की ओर प्रस्थान कर गये। द्रोपदी उन्हें जाते देख , भगवान श्री कृष्ण को मन ही मन घन्यवाद दिया । श्रद्धा और विश्वास की यह अमर कथा आज भी लोक कथाओ मे चर्चित है। दोस्तों यह धार्मिक कहानी आपको कैसी लगी दो शब्द कमेंट्री बॉक्स मे जरूर लिखे धन्यवाद ।लेखक -भरत गोस्वामी
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