BHAKTRAJ INDERDHUMAN भक्तराज इन्द्रधुम्न
पूर्व काल मे घटित एक सुन्दर कथा जो युगो युग तक जन मानस के हृदय पटल पर भक्त और भगवान के बीच अनमोल अमिट छवि बन कर रह गयी । प्रेम की एक बेमिसाल कथा का वर्णन हम आज आपके समझ रख रहे है। पूूूूर्वकाल मे एक बहुत ही प्रतापी ,कर्मनिष्ठ , धर्म परायण, राजा हुए। जिनका नाम इन्द्रधुम्न था। राजा इन्द्रधुम्न एक कुुुुशल शासक होनेे के साथ साथ धर्म को बहुत महत्व देते थे उनके राज्य मे प्रजा भी उनके मधुर स्वभाव के कारण उनसे बहुत प्रभावित थी। भगवान श्री हरि विष्णु के परम भ क्त राजा इन्द्रधुम्न पर भक्ति का वह नशा सवार हुुआ की वानप्रस्थ आश्रम से पहलेे ही राजा राज पाठ से विमुख हो गये । उनकी प्रजा और अन्य राज गुुरूओ ने उन्हें समझानेे की बहुत कोशिश की पर उन्होने किसी की नही सुनी । एक निर्जन वन मे जाकर राजा ने सन्त महात्माओ जैसा जीवन जीने लगे। ब्रहम मुुुुुुहूर्त सेे लेकर संध्या काल तक भगवत भाव ,पूजा अर्चना मेे व्यतीत होने लगे। खुुंखार जानवर भी उनके समक्ष आते ही निर्मल स्वभाव जैसेे जानवर बन जाते। उस निर्जन वन मे भी वह राजा के समान ही रहा करते थेे । उनकेे करूणा से भरे दिल मेे मानव और पशु मे कोई अन्तर नहीं था। सबसे समान रूप सेे प्रेम व्यवहार से रहते क्ई वर्ष बीत गयेे । एक दिन वह पूूूजा अर्चना और ध्यान मे इतना म ग्न थे, कि ऋषि अगस्त अपने शिष्यो केे साथ वहां आये तो राजा ने उनका अभिवादन भी नही किया । राजा के इस व्यवहार से कुुुुपित होकर ऋषि अगस्त ने उन्हें श्राप दे दिया ।और कहाकि " अपने मूूढबुद्धि के कारण तुम हस्ती योनि को प्राप्त करोगे ।" जब राजा की भक्ति तुन्द्रा टूूूटी तो उन्हे बडा अफसोस हुआ। वे ऋषि अगस्त के चरणों मे नत मस्तक हो गये । विधि का विधान इतना निर्मम हैै कि चाह करके भी ऋषि अगस्त उनकी कोई मदद नहीं कर पाये। उन्होने राजा से कहा " हे राजन , विधी के विधान के आगेे किसी का नहीं चलता मुझे भी किसी विधान के तहत ऐसा करने को विवश किया गया हैै पर मै इतना जरूर जानता हूँ कि भगवान अच्छे लोगो के साथ बुुुरा नही करता । इस कृत्य मे ही तुम्हारा कल्याण छिपा हुआ है । ऐसा कह कर ऋषि अगस्त अपने शिष्यो के साथ वहांंसेे प्रस्थान कर गये । कुछ समय बाद ही राजा इन्द्रधुम्न हस्ती योनि को प्राप्त कर गये। अपने कई हस्ती साथियों के साथ वेे त्रिकुट पर्वत पर स्थित एक विशाल वन प्रदेश मे रहने लगेे ।बहुुुत दिन बीत गये वे एक दिन अपने चन्द साथियों के साथ वे जल क्रीड़ा मे मस्त थे। सरोवर कमल पुष्प के कारण सुगन्धित वातावरण का निर्माण किये हुए था। कब संध्या ने अपना आंचल पसार दिया यह उन्हे ज्ञात ही नही हुआ । वे अपने जल क्रीड़ा मेे मग्न थे। इतने मे उस सरोवर मे रह रहे एक ग्राह (मगरमच्छ) नेे उनके एक पैैर को जकड लिया । दर्द से उनके मुख सेे निकली जिगाढ सेे डर करकेे उनके सभी हस्ती साथी भाग लिये । अब ग्राह और गजराज के साथ एक युद्ध छिड गया था ।कभी गजराज ग्राह को किनारे की तरफ खीच लाते तो कभी ग्राह उनको सरोवर के मध्य खीच ले जाते। इसी तरह दोनों के बीच युद्ध चलता रहा । दोनो थक कर चूर चूर हो गये थे पर कोई निर्णय नही हो पा रहा था। सूर्य अपने अस्तांचल मे छुपने की लालसा से अपनेे अंतिम लालिमा को समेट रहे थे। गजराज भी थक कर अपनी जीवन की लालसा छोड़ चुुु के थे। उन्होने बुुुुझे मन से अपनी सूूढ द्वारा एक कमल पुष्प को उपर की तरफ उठाकर भगवान श्री हरि विष्णु का ध्यान किया और मन ही मन कहने लगेे ," हे प्रभु मेरी आखीरी भेट स्वीकार कीजिए " ऐसा कहते कहते उनकी अश्रु धारा बहने लगी। क्षीर सागर मे शेषशय्या पर विराजमान भगवान श्री हरि विष्णु की तन्द्रा टूटी उन्होने सुदर्शन चक्र द्वारा ग्राह का अन्त करके अपने परम प्रिय भक्त गज राज को बचा लिया और वहां प्रगट होकर ग्राह और गज राज दोनों को मोक्क्ष प्रदान किया । दोस्तों यह धार्मिक कहानी आपको कैसी लगी दो शब्द कमेंट बॉक्स मे जरूर लिखे धन्यवाद -भरत गोस्वामी
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