MAHATMA KABIR महात्मा कबीर A RILIGIOUS STORY
भारत वर्ष एक ऐसा अनोखा देश है ,जहां चमत्कारों की गंगा बहती है ।आप सब लोग ने महात्मा कबीर के बारे में सुना ही होगा ।उन्ही के जीवन से जुड़ी कुछ धटनाए जो किताबों तक नहीं पहुंच पाई ।और लोक कथाओं में चर्चित हो कर रह गई । उन्हीं प्रमुख घटनाओं का जिक्र इस सन्दर्भ में किया गया है ।जो संसार में घटे अजुबा से कम नहीं ।
कबीर दास जी एक महात्मा पुरूष थे । अपने जीवन काल में उन्होंने ऐसे ऐसे अद्भुत कार्य किया जो कोई साधारण मनुष्य नहीं कर सकता है ।वे हिन्दू और मुसलमान दोनों के ही प्रिय थे । कहा जाता है कि उनका जन्म एक हिन्दू परिवार मेें हुआ था और लालन-पालन एक मुस्लिम परिवार ने किया था । उनके पिता एक बुनकर थे । कबीर दास जी अपने पिता के काम में हाथ बटा रहेे थे एका एक उनके दिमाग में एक भावना उठी कि गुुुरू दीक्षा लेना बहुत जरूरी है । यह सोच कर उन्होंने गुरू रामानंद जी को अपना गुरु बनाने की इच्छा लिए उनके आश्रम पहुंचे तो रामानंद जी ने शिष्य बना ने से इंकार कर दिया । तब कबीर दास जी ने यह ठान लिया कि मैं यदि शिष्य बना तो रामानंद जी ही मेरे गुरु होंगे । कबीर दास जी ने हिम्मत नहीं हारी और प्रयास करते रहेे ।एक दिन तो उन्होंने हद ही पार कर दी । रामानंद जी सुबह सुबह सिढियो से उतर रहे थे । थोड़ा अंधेरा था रामानंद जी का पैैर कबीर दास जी के शरीर पर पड़ा । और रामानंद जी राम राम करते पीछेेेे हट गए ।
कबीर दास जी की दृढ़ता पूर्वक प्रयास के आगे गुरू रामानंद जी को झुकना पड़ा ।और उन्होंने महात्मा कबीर को शिष्य के रूप मे स्वीकार किया ।एक दिन किसी कार्य बस रामानंद जी को कहीं जाना था ।आश्रम कि सारी जिम्मेदारी कबीर दास जी देकर रामानंद जी कहीं चले गए ।आश्रम में ही मंदिर था वहां साफ सफाई पूजा पाठ आदि सब काम अन्य शिष्यों के साथ कबीर दास जी भी निपटा रहे थे ।उनके मन मस्तिष्क में पता नहीं क्या चल रहा था । उन्होंने एक डलिया में सब भगवान जी की मूर्ति उठाई और गंगा जी में फेंक कर चले आए । उनके इस कृत्य पर अन्य शिष्यों को बड़ा आश्चर्य हुआ ।पर किसी ने भी कबीर दास जी को कुछ नहीं कहा । दुसरे दिन जब रामानंद जी वापस आश्रम आये तो शिष्यों ने कबीर दास जी के द्वारा किए गये कृत्य को रामानंद जी के समक्ष व्यक्त किया । रामानंद जी आपे से बाहर हो गए । उन्होंने कबीर दास जी को खरी खोटी सुनाई । और सारी मुर्तियां वापस लाने को कहा । कबीर दास जी गंगा जी किनारे गये और सभी मुर्तियो को वापस आने का आग्रह किया । सभी मुर्तियां अपने आप डलिया में जाकर बैठ गई । रामानंद जी ने नाराज हो कर कबीरदास जी को मुर्तियां वापस लाने को कह तो दिया लेकिन मुर्तियां कहां से आयेगी उसको तो फेंके हुए बहुत देर हो गया है । इसलिए रामानंद जी कबीरदास जी के पीछे छूप छूप कर चल रहे थे । जब उन्होंने देखा कि कबीर दास जी के आग्रह पर सारी मुर्तियां वापस आकर डलिया में अपने आप बैठ गई तो रामानंद जी को इतना आश्चर्य हुआ कि उनको लगा कि मैं कोई स्वप्न तो नहीं देख रहा हूं । रामानंद जी को बहुत अफसोस हुआ ।जिसको वह एक साधारण मनुष्य समझते थे । वह तो बहुत बड़ा मनुष्य निकला । उन्होंने ईश्वर को बहुत धन्यवाद दिया कि इतना तेजस्वी शिष्य आपने मेरी झोली में डाल दिया । आज मेरा जीवन धन्य हो गया । कबीर दास जी ने सभी मुर्तियो को वापस लाकर यथावत रख दिया । बस इतना होना था कि यह कृत्य चारों तरफ फैल गया । हर तरफ जै जैकार होने लगी ।सब कोई कबीर दास जी मिलने को बेताब हो गया ।उसी बेताबी के दौरान समकालीन गुरु गोरखनाथ जी के कानों तक यह खबर पहुंची । वे आवेश में आकर रामानंद जी के आश्रम पहुंचे । और धरती में अपना चिमटा गाढ़ कर उस पर बैठ गए । और शिष्यों से कहने लगे ।"बुलाओ कबीर को मैं उससे शास्त्रार्थ करना चाहता हूं । " कबीर दास जी अपने पिता के काम में हाथ बटा रहेे थे । उनके हाथ में कपड़ा बुनने वाला धागे का गोला था ।उस वक्त गुरू गोरखनाथ जी भी जग प्रसिद्ध सिद्ध पुरुष थे । उनकी ख्याति भी चारों तरफ फैली हुई थी। कबीर दास जी ने जब यह सुना कि गुरू गोरखनाथ जी आपसे शास्त्रार्थ करना चाहते हैं । तो वे अबिलम्ब गुरु गोरखनाथ जी के समक्ष उपस्थित हो गये ।और उन्होंने गुरू गोरखनाथ जी का अभिवादन किया ।और विनम्रता पूर्वक बोले ।"मुनिवर आप से शास्त्रार्थ करने की मेरी कोई इच्छा नहीं है । आप बहुत बड़े ज्ञानी मैं एक साधारण मनुष्य हूं । आप से कैसे बराबरी कर सकता हूं । " इस पर गुरू गोरखनाथ जी ने कहा " व्यर्थ का समय नष्ट कर रहे हो । आओ शास्त्रार्थ शुरू करें । तब कबीर दास जी ने अपने हाथ में लिया हुआ धागे का गोला आकाश में फेंक दिया और उस जाकर बैठ गए ।अब गुरू गोरखनाथ जी को बहुत शर्म महसूस हुई । और नम्र ता पुर्वक कबीर दास जी से कहा " वास्तव में मैं जैसा सुना था वैसा ही देख रहा हूं । आप वाकई महान हो । आप की कृति हमेशा यूंही बनी रहे "ऐसा आशीर्वाद देकर गुरु गोरखनाथ जी अपने आश्रम चले गए । तत्कालीन बादशाह अकबर तक कबीरदास जी की कृति पहुंची । बादशाह अकबर ने अपने खाश आदमी को भेज कर कबीरदास जी को अपने यहां आने का निमंत्रण दिया । पर कबीर दास जी ने उसका नियंत्रण स्वीकार नहीं किया । कई बार कोशिश कर ने के बाद भी जब कबीरदास जी ने बादशाह अकबर का निमंत्रण स्वीकार नहीं किया तो एक दिन आवेश मे आकर खुद बादशाह अकबर उनके आश्रम पहुंच गये और आग्रह किया कि मुझे अपना शिष्य बना लिजीए । कबीर दास जी ने कहा कि एक माह के बाद आइए अभी इस कार्य के लिए उचित समय नहीं है । बादशाह अकबर उनकी बात मान कर वापस लौट गये । फिर एक माह बाद जब बादशाह अकबर कबीर दास जी के समक्ष उपस्थित हुए तो कबीर दास जी ने फिर उनसे वहीं बात कही, इस कार्य के लिए अभी उचित समय नहीं है ।एक माह के बाद आइए । ऐसा करते करते कई बार हो गया ।एक दिन बादशाह अकबर अकेले आधा वस्त्र पहनें ,बिना जुता चप्पल के आश्रम पहुंच गए ।कबीर दास जी को उनके इस हालात पर दया आ गई । और उनके मुख से अनायास ही ये शब्द निकल पड़े "आओ राजन आज बहुत अच्छे समय पर आए हो यह समय इस कार्य के लिए बहुत उचित है । इस तरह बादशाह अकबर को गुरूत्व की दीक्षा मिल गयी । दोस्तों यह कहानी आप को कैसी लगी दो शब्द कमेंट बॉक्स मे जरूर लिखें धन्यवाद लेखक- भरत गोस्वामी
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